प्रस्तावना (Introduction)
ब्रह्म समाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंने 20 अगस्त, 1828 ई0 में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया।
राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधानगर में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजा राम मोहन राय की प्रारंभिक शिक्षा फारसी और अरबी भाषाओं में पटना में हुई, जहाँ उन्होंने कुरान, सूफी रहस्यवादी कवियों के काम तथा प्लेटो और अरस्तू के कार्यों के अरबी अनुवाद का अध्ययन किया था। बनारस में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया और वेद तथा उपनिषद पढ़े। सोलह वर्ष की आयु में अपने गाँव लौटकर उन्होंने हिंदुओं की मूर्ति पूजा पर एक तर्कसंगत आलोचना लिखी। वर्ष 1803 से 1814 तक उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिये वुडफोर्ड और डिग्बी के अंतर्गत निजी दीवान के रूप में काम किया।
राजा राममोहन राय का प्राचीन ग्रन्थों एवं दर्शन में विश्वास था परन्तु अंतिम रुप से वे मानव विवेक और तर्क शक्ति पर ही निर्भर करते थे। उनके अनुसार किसी भी सिद्धान्त की सत्यता की अन्तिम कसौटी मानव विवेक ही है। उनका विश्वास था कि वेदान्त दर्शन भी इसी तर्कशक्ति पर आधारित है। उनके अनुसार यदि कोई भी दर्शन या परम्परा तर्क पर खरा न उतरे और वे समाज के लिए उपयोगी न हो तो मनुष्य को उन्हे त्यागने से नही हिचकना चाहिए। मानव विवेक को उन्होने न केवल हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में लागू किया, अपितु उसके सहारे उन्होने संसार के अन्य धर्मो की भी परीक्षा की। कहा जाता है कि उन्होंने 1816 में पहली बार अंग्रेजी भाषा में भ्प्छक्न्प्ैड (हिंदुत्व) शब्द का इस्तेमाल किया। प्रिसेप्टस ऑफ जीसस (1820) में उन्होंने न्यू टेस्टामेंट के नैतिक और दार्शनिक संदेश को अलग करने की कोशिश की जो कि चमत्कारिक कहानियों के माध्यम से दिये गए थे। वे विभिन्न धर्मो के नैतिक संदेशों के प्रशंसक थे और चाहते थे कि उन्हे हिन्दू धर्म में समाहित कर लिया जाय। फिर भी राजा राममोहन राय को अपना धर्म और अपनी परम्पराएॅं प्रिय थी। उन्होंने वर्ष 1821 में कलकत्ता यूनिटेरियन एसोसिएशन और वर्ष 1828 में ब्रह्म सभा (जो बाद में ब्रह्म समाज बन गया) की स्थापना की। इस सभा को मूल उद्देश्य था- राजा राममोहन राय की मान्यताओं के अनुरुप हिन्दू धर्म में सुधार लाना।
तुहफ़त-उल-मुवाहिदीन (1804)
वेदांत गाथा (1815)
वेदांत सार के संक्षिप्तीकरण का अनुवाद (1816)
केनोपनिषद (1816)
ईशोपनिषद (1816)
कठोपनिषद (1817)
मुंडक उपनिषद (1819)
हिंदू धर्म की रक्षा (1820)
द प्रिसेप्टस ऑफ जीसस- द गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस (1820)
बंगाली व्याकरण (1826)
द यूनिवर्सल रिलीजन (1829)
भारतीय दर्शन का इतिहास (1829)
गौड़ीय व्याकरण (1833)
कुल मिलाकर राजा राममोहन राय का दृष्टिकोण उदार, व्यापक एवं अपेक्षाकृत आधुनिक था। उनके विचारों एवं व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप उनके सुधारों पर पड़ी। राममोहन राय दिल्ली के मुगल सम्राट अकबर द्वितीय की पेंशन से संबंधित शिकायतों हेतु इंग्लैंड गए तभी अकबर द्वितीय द्वारा उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी गई।
लेकिन इसी बीच 1833 ई0 में इंग्लैण्ड़ में उनकी अचानक मृत्यु हो गई। इससे उनके ब्रह्म समाज की गतिविधि पर बुरा असर पडा। राजा राममोहन की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज का संगठन एवं काम ढीला पड़ने लगा फिर भी वह इस बीच किसी तरह कायम रहा। जब देवेन्द्रनाथ टैगोर (1818-1905) इस में शामिल हुए तो संस्था में एक बार फिर जान आ गई। राममोहन के विचारों के प्रसार के लिए उन्होंने 1839 में ’तत्त्वबोधिनी सभा’ की स्थापना की। कालान्तर में इसके अंदर राजा राममोहन राय के सभी प्रमुख अनुयायी और डेरोजियो, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा अक्षय कमार दत्त सरीखे स्वतंत्र विचारक भी आ गए। तत्त्वबोधिनी सभा तथा उसके मख्य अंग ’तत्त्वबोधिनी पत्रिका’ ने बंगला भाषा मे भारत के अतीत के सुव्यवस्थित अध्ययन को भरपूर प्रोत्साहन दिया। उन्होंने बंगाल के बद्धिजीवियों के दृष्टिकोण को विवेकशील बनाने में सहायता की। 1843 में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज का नेतृत्व सँभाला। इसके बाद उन्होंने इसका पुनः गठन किया और उसे नया जीवन दिया। अपने सिद्धांतों के प्रचार के साथ ही ब्रह्म समाज ने विधवा विवाह का समर्थन किया तथा स्त्री शिक्षा के पक्ष में सक्रिय आंदोलन चलाया। उसने बहुविवाह भी समाप्त करने के लिए प्रयत्न किया। समाज ने रैयतों की दशा सुधारने के लिए किए गए आंदोलन का समर्थन किया और और आत्मसंयम का उपदेश दिया।
बाद में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने केशव चंद्र सेन (1834-84) को ब्रह्म समाज का आचार्य नियुक्त किया। उनके प्रभाव में समाज ने हिंदू धर्म के सर्वोत्तम विश्वासों एव नतिक आचरणों को बनाए रखने की कोशिश की। उनके आचार्यत्व में समाज बहुत लोकप्रिय रहा, तथा बंगाल से बाहर इसकी शाखाएँ उत्तर प्रदेश, पंजाब और मद्रास में खोली गईं। मगर शीघ्र ही केशवचंद्र के उदारवादी दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप ब्रह्म समाज में फूट पड़ गई। केशवचंद्र कई बातों में हिंदू धर्म को संकीर्ण मानते थे और संस्कृत के मूल पाठों के प्रयोग को उचित नहीं समझते थे। अब उनकी सभाओं में सभी धर्मों (ईसाई, इस्लाम, पारसी आदि) के धर्मग्रंथों का पाठ होने लगा। ऐसे ही सवालों पर मतभेद बढ़ता गया और अंत में देवेन्द्रनाथ ने 1865 ई0 में केशवचंद्र से आचार्य की उपाधि छीन ली। फलस्वरूप केशवचन्द्र सेन मौलिक ब्रह्म समाज से अलग हो गए और समाज की एक नई शाखा का संगठन किया जिसे उन्होंने ’आदि ब्रह्म समाज’ के नाम से पुकारा। पुराने ब्रह्म समाज को 1866 ई0 में भारतीय ब्रह्म समाज कहा गया।
1878 में इस नवीन ब्रह्म समाज में एक बार फिर फूट पड़ी। केशव चंद्र एवं उनके अन्य सहधर्मी ब्रह्म समाजियों के लिए विवाह की एक न्यूनतम आयु का प्रचार करते थे, लेकिन 1878 ई0 में स्वयं केशवचंद्र ने अपनी 13 वर्षीया पुत्री का विवाह पूरे वैदिक कर्मकांड के साथ कूचविहार के राजा के साथ कर दिया। इसपर अन्य समाजियों ने कड़ा विरोध प्रकट किया और अंततः केशव चन्द्र के समाज से अलग होकर उन्होंने एक नए ’साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। इसके बाद केशव चंद्र का समाज धीरे-धीरे लुप्त हो गया। .
ब्रह्म समाज के कमजोर होने के कई कारण थे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में समाज में लगातार आंतरिक फूट पड़ती रही जिसका इसके संगठन एवं कार्यशक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा। इसका प्रभाव मुख्यतः पढ़े-लिखे शहरी लोगों तक ही सीमित था। इसका दार्शनिक पक्ष आम अनपढ़ आदमी की समझ के बाहर था, अतः साधारण जनता इसे नहीं अपना सकी। इसका कार्यक्षेत्र भी मुख्यतः उच्च वर्गों तक ही सीमित रहा। सती प्रथा ऊँची जातियों में ही व्याप्त थी और नारी शिक्षा एवं मुक्ति नीची जाति के आम लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी। लेकिन इन सब के बावजूद ब्रह्म समाज के महत्त्व को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भारत, विशेषकर बंगाल के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर इसका काफ़ी प्रभाव पड़ा। अपने संबोधन में टैगोर ने राम मोहन राय को’ भारत में आधुनिक युग के उद्घाटनकर्त्ता के रूप में भारतीय इतिहास का एक चमकदार सितारा कहा।
राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधानगर में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजा राम मोहन राय की प्रारंभिक शिक्षा फारसी और अरबी भाषाओं में पटना में हुई, जहाँ उन्होंने कुरान, सूफी रहस्यवादी कवियों के काम तथा प्लेटो और अरस्तू के कार्यों के अरबी अनुवाद का अध्ययन किया था। बनारस में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया और वेद तथा उपनिषद पढ़े। सोलह वर्ष की आयु में अपने गाँव लौटकर उन्होंने हिंदुओं की मूर्ति पूजा पर एक तर्कसंगत आलोचना लिखी। वर्ष 1803 से 1814 तक उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिये वुडफोर्ड और डिग्बी के अंतर्गत निजी दीवान के रूप में काम किया।
धार्मिक विचार -
राजा राम मोहन राय का पहला प्रकाशन तुहफ़ात-उल-मुवाहिदीन (देवताओं को एक उपहार) वर्ष 1803 ई0 में सामने आया था जिसमें हिंदुओं के तर्कहीन धार्मिक विश्वासों और भ्रष्ट प्रथाओं को उजागर किया गया था। वर्ष 1814 में उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपने जीवन को धार्मिक, सामाजिक सुधारों के प्रति समर्पित करने के लिये कलकत्ता चले गए। वर्ष 1814 ई0 में उन्होंने मूर्ति पूजा, जातिगत कठोरता, निरर्थक अनुष्ठानों और अन्य सामाजिक बुराइयों का विरोध करने के लिये कलकत्ता में आत्मीय सभा की स्थापना की। उन्होंने ईसाई धर्म के कर्मकांड की आलोचना की और ईसा मसीह को ईश्वर के अवतार के रूप में खारिज कर दिया। तदुपरान्त वे आजीवन धर्म और समाज की बुराईयों को दूर करने में लगे रहे। अपने विशद ज्ञान और वैज्ञानिक और प्रगतिशील दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि में राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म में उत्पन्न कुरीतियों एवं आड़म्बरों पर गंभीर प्रहार किया। उन्होने मूर्तिपूजा की आलोचना की और सप्रमाण यह विचार व्यक्त किया कि हिन्दूओं के सभी प्राचीन मौलिक ग्रन्थों ने एक बह्म का उपदेश दिया। इस दावे के समर्थन में उन्होने वेदों और पॉच मुख्य उपनिषदों का बॅंगला भाषा में अनुवाद प्रकाशित किया। उन्होने निरर्थक धार्मिक अनुष्ठानों को विरोध किया और पंड़ित-पुरोहितों पर तीखा प्रहार किया क्योंकि वे इन्ही को इन आड़म्बरों के लिए जिम्मेदार मानते थे।राजा राममोहन राय का प्राचीन ग्रन्थों एवं दर्शन में विश्वास था परन्तु अंतिम रुप से वे मानव विवेक और तर्क शक्ति पर ही निर्भर करते थे। उनके अनुसार किसी भी सिद्धान्त की सत्यता की अन्तिम कसौटी मानव विवेक ही है। उनका विश्वास था कि वेदान्त दर्शन भी इसी तर्कशक्ति पर आधारित है। उनके अनुसार यदि कोई भी दर्शन या परम्परा तर्क पर खरा न उतरे और वे समाज के लिए उपयोगी न हो तो मनुष्य को उन्हे त्यागने से नही हिचकना चाहिए। मानव विवेक को उन्होने न केवल हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में लागू किया, अपितु उसके सहारे उन्होने संसार के अन्य धर्मो की भी परीक्षा की। कहा जाता है कि उन्होंने 1816 में पहली बार अंग्रेजी भाषा में भ्प्छक्न्प्ैड (हिंदुत्व) शब्द का इस्तेमाल किया। प्रिसेप्टस ऑफ जीसस (1820) में उन्होंने न्यू टेस्टामेंट के नैतिक और दार्शनिक संदेश को अलग करने की कोशिश की जो कि चमत्कारिक कहानियों के माध्यम से दिये गए थे। वे विभिन्न धर्मो के नैतिक संदेशों के प्रशंसक थे और चाहते थे कि उन्हे हिन्दू धर्म में समाहित कर लिया जाय। फिर भी राजा राममोहन राय को अपना धर्म और अपनी परम्पराएॅं प्रिय थी। उन्होंने वर्ष 1821 में कलकत्ता यूनिटेरियन एसोसिएशन और वर्ष 1828 में ब्रह्म सभा (जो बाद में ब्रह्म समाज बन गया) की स्थापना की। इस सभा को मूल उद्देश्य था- राजा राममोहन राय की मान्यताओं के अनुरुप हिन्दू धर्म में सुधार लाना।
सामाजिक विचार -
राममोहन राय और उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने जिस तरह से हिन्दू धर्म को सुधारने का कार्य किया उसी प्रकार सामाजिक क्षेत्र में भी सुधारों की नींव रखी। वस्तुतः धार्मिक एवं सामाजिक सुधार एक दूसरे से जुड़े हुये थे क्योंकि समाज की बहुत सारी कुरीतियों को धार्मिक मान्यता प्राप्त थी। उनके द्वारा जाति व्यवस्था, छुआछूत, अंधविश्वास और नशीली दवाओं के इस्तेमाल के विरुद्ध अभियान चलाया गया। राजा राममोहन राय को महिलाओं के प्रति दर्द उस वक्त एहसास हुआ, जब उनकी भाभी को सती होना पड़ा। वह महिलाओं की स्वतंत्रता और विशेष रूप से सती एवं विधवा पुनर्विवाह के उन्मूलन पर अपने अग्रणी विचार और कार्रवाई के लिये जाने जाते थे। उन्होंने बाल विवाह, महिलाओं की अशिक्षा और विधवाओं की अपमानजनक स्थिति का विरोध किया तथा महिलाओं के लिये विरासत तथा संपत्ति के अधिकार की मांग की। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध तो ऐतिहासिक आन्दोलन चलाया और उनके प्रयासों से ही सती प्रथा पर रोक लगाने में सफलता मिल सकी। इस प्रथा को बन्द करने के लिए उन्होने प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों के हवाले से यह साबित करने की कोशिश की कि मौलिक हिन्दू धर्म इस प्रथा के खिलाफ था। उनका मानना था कि मानव विवेक और करुणा ऐसी किसी भी प्रथा का समर्थन नही कर सकती थी। हालॉंकि उनके इस अभियान के विरोध में कुछ लोग सामने आये जिनमें राधाकान्त देव का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। राधाकान्त देव (1784-1867) अनेक भाषाओं के विद्वान, हिन्दू संस्कृति के संरक्षण के पक्षधर एवं विचारक थे। उन्होने ’शब्दकल्पद्रुम’ नामक संस्कृत के आधुनिक महाशब्दकोश की रचना की। श्री राधाकान्त देव गोपीमोहन देव के पुत्र थे जो महाराजा नवकृष्ण देव के दत्तक पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे। 1830 में इन्होने ’धर्मसभा’ नामक संस्था चलायी जो अन्य कार्यों के अलावा पश्चिमोन्मुखी विचारों का विरोधी था। इस सभा ने “चन्द्रिका दर्पण“ नामक पत्रिका के माध्यम से सती प्रथा के समर्थन में अपना विचार रखा जबकि राजा राममोहन राय आदि ने इसके उन्मूलन के पक्षधर थे। 1829 में सती प्रथा उन्मूलन क़ानून बना और धारा 17 के तहत इसे मानव हत्या का अपराध माना गया। यह अधिनियम 4 दिसंबर 1929 को लागू कर दिया गया। नवंबर 1830 में वे सती प्रथा संबंधी अधिनियम पर प्रतिबंध लगाने से उत्पन्न संभावित अशांति का प्रतिकार करने के उद्देश्य से इंग्लैंड चले गए।शैक्षणिक सुधार -
राजा राममोहन राय ने देशवासियों के मध्य आधुनिक शिक्षा का प्रसार करने के लिये बहुत प्रयास किये क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों में आधुनिक विचारों के प्रसार के लिए आधुनिक शिक्षा आवश्यक थी। इसलिए उन्होने अंग्रेजी शिक्षा का भरपूर समर्थन किया। उन्होंने वर्ष 1817 ई0 में कलकŸा में ड़ेविड हेयर के सहयोग से हिंदू कॉलेज की स्थापना की जबकि उनके अपने खर्च से संचालित एक अंग्रेज़ी स्कूल में मैकेनिक्स और वोल्टेयर के दर्शन को पढ़ाया जाता था। वर्ष 1825 में उन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की जहाँ भारतीय शिक्षण और पश्चिमी सामाजिक और भौतिक विज्ञान दोनों पाठ्यक्रमों को पढ़ाया जाता था। बंगला भाषा के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा और उन्होने स्वयं एक बांग्ला व्याकरण का संकलन किया।राजनीतिक विचार -
राजा राममोहन राय ने राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में भी कुछ काम किया। वे उदारवादी विचारों के पोषक थे अतः उन्होने आमूल परिवर्तन की जगह भारतीय प्रशासन में सुधार के लिए आन्दोलन किया। ब्रिटिश संसद द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श किये जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होने अपने देशवासियों में राजनीतिक जागरण पैदा करने का भी प्रयास किया। राजनीतिक मुद्दों पर जन-आन्दोलन की शुरुआत उन्होने ही की। बंगाली जमींदारों द्वारा कृषकों के शोषण की उन्होने आलोचना की। उन्होने वरिष्ठ सेवाओं के भारतीयकरण, कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथ्थकरण, जूरी द्वारा न्याय और भारतीयों एवं युरोपियनों के बीच न्यायिक समानता की मॉंग की।साहित्यिक कार्य -
राजा राममोहन राय पत्रकारित के अग्रदूत थे। 1833 ई0 में उन्होने समाचारपत्रों के नियमन के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन किया और 1835 ई0 में समाचारपत्रों को जो कुछ स्वतंत्रता मिली, वह राजा राममोहन राय द्वारा चलाये गये आन्दोलन का ही परिणाम था। जब वर्ष 1819 में लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा प्रेस सेंसरशिप में ढील दी गई, तो राम मोहन राय ने तीन पत्रिकाओं- ब्राह्मणवादी पत्रिका (वर्ष 1821); बंगाली साप्ताहिक- संवाद कौमुदी (वर्ष 1821) और फारसी साप्ताहिक- मिरात-उल-अखबार का प्रकाशन किया।तुहफ़त-उल-मुवाहिदीन (1804)
वेदांत गाथा (1815)
वेदांत सार के संक्षिप्तीकरण का अनुवाद (1816)
केनोपनिषद (1816)
ईशोपनिषद (1816)
कठोपनिषद (1817)
मुंडक उपनिषद (1819)
हिंदू धर्म की रक्षा (1820)
द प्रिसेप्टस ऑफ जीसस- द गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस (1820)
बंगाली व्याकरण (1826)
द यूनिवर्सल रिलीजन (1829)
भारतीय दर्शन का इतिहास (1829)
गौड़ीय व्याकरण (1833)
कुल मिलाकर राजा राममोहन राय का दृष्टिकोण उदार, व्यापक एवं अपेक्षाकृत आधुनिक था। उनके विचारों एवं व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप उनके सुधारों पर पड़ी। राममोहन राय दिल्ली के मुगल सम्राट अकबर द्वितीय की पेंशन से संबंधित शिकायतों हेतु इंग्लैंड गए तभी अकबर द्वितीय द्वारा उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी गई।
लेकिन इसी बीच 1833 ई0 में इंग्लैण्ड़ में उनकी अचानक मृत्यु हो गई। इससे उनके ब्रह्म समाज की गतिविधि पर बुरा असर पडा। राजा राममोहन की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज का संगठन एवं काम ढीला पड़ने लगा फिर भी वह इस बीच किसी तरह कायम रहा। जब देवेन्द्रनाथ टैगोर (1818-1905) इस में शामिल हुए तो संस्था में एक बार फिर जान आ गई। राममोहन के विचारों के प्रसार के लिए उन्होंने 1839 में ’तत्त्वबोधिनी सभा’ की स्थापना की। कालान्तर में इसके अंदर राजा राममोहन राय के सभी प्रमुख अनुयायी और डेरोजियो, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा अक्षय कमार दत्त सरीखे स्वतंत्र विचारक भी आ गए। तत्त्वबोधिनी सभा तथा उसके मख्य अंग ’तत्त्वबोधिनी पत्रिका’ ने बंगला भाषा मे भारत के अतीत के सुव्यवस्थित अध्ययन को भरपूर प्रोत्साहन दिया। उन्होंने बंगाल के बद्धिजीवियों के दृष्टिकोण को विवेकशील बनाने में सहायता की। 1843 में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज का नेतृत्व सँभाला। इसके बाद उन्होंने इसका पुनः गठन किया और उसे नया जीवन दिया। अपने सिद्धांतों के प्रचार के साथ ही ब्रह्म समाज ने विधवा विवाह का समर्थन किया तथा स्त्री शिक्षा के पक्ष में सक्रिय आंदोलन चलाया। उसने बहुविवाह भी समाप्त करने के लिए प्रयत्न किया। समाज ने रैयतों की दशा सुधारने के लिए किए गए आंदोलन का समर्थन किया और और आत्मसंयम का उपदेश दिया।
बाद में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने केशव चंद्र सेन (1834-84) को ब्रह्म समाज का आचार्य नियुक्त किया। उनके प्रभाव में समाज ने हिंदू धर्म के सर्वोत्तम विश्वासों एव नतिक आचरणों को बनाए रखने की कोशिश की। उनके आचार्यत्व में समाज बहुत लोकप्रिय रहा, तथा बंगाल से बाहर इसकी शाखाएँ उत्तर प्रदेश, पंजाब और मद्रास में खोली गईं। मगर शीघ्र ही केशवचंद्र के उदारवादी दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप ब्रह्म समाज में फूट पड़ गई। केशवचंद्र कई बातों में हिंदू धर्म को संकीर्ण मानते थे और संस्कृत के मूल पाठों के प्रयोग को उचित नहीं समझते थे। अब उनकी सभाओं में सभी धर्मों (ईसाई, इस्लाम, पारसी आदि) के धर्मग्रंथों का पाठ होने लगा। ऐसे ही सवालों पर मतभेद बढ़ता गया और अंत में देवेन्द्रनाथ ने 1865 ई0 में केशवचंद्र से आचार्य की उपाधि छीन ली। फलस्वरूप केशवचन्द्र सेन मौलिक ब्रह्म समाज से अलग हो गए और समाज की एक नई शाखा का संगठन किया जिसे उन्होंने ’आदि ब्रह्म समाज’ के नाम से पुकारा। पुराने ब्रह्म समाज को 1866 ई0 में भारतीय ब्रह्म समाज कहा गया।
1878 में इस नवीन ब्रह्म समाज में एक बार फिर फूट पड़ी। केशव चंद्र एवं उनके अन्य सहधर्मी ब्रह्म समाजियों के लिए विवाह की एक न्यूनतम आयु का प्रचार करते थे, लेकिन 1878 ई0 में स्वयं केशवचंद्र ने अपनी 13 वर्षीया पुत्री का विवाह पूरे वैदिक कर्मकांड के साथ कूचविहार के राजा के साथ कर दिया। इसपर अन्य समाजियों ने कड़ा विरोध प्रकट किया और अंततः केशव चन्द्र के समाज से अलग होकर उन्होंने एक नए ’साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। इसके बाद केशव चंद्र का समाज धीरे-धीरे लुप्त हो गया। .
ब्रह्म समाज के कमजोर होने के कई कारण थे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में समाज में लगातार आंतरिक फूट पड़ती रही जिसका इसके संगठन एवं कार्यशक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा। इसका प्रभाव मुख्यतः पढ़े-लिखे शहरी लोगों तक ही सीमित था। इसका दार्शनिक पक्ष आम अनपढ़ आदमी की समझ के बाहर था, अतः साधारण जनता इसे नहीं अपना सकी। इसका कार्यक्षेत्र भी मुख्यतः उच्च वर्गों तक ही सीमित रहा। सती प्रथा ऊँची जातियों में ही व्याप्त थी और नारी शिक्षा एवं मुक्ति नीची जाति के आम लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी। लेकिन इन सब के बावजूद ब्रह्म समाज के महत्त्व को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भारत, विशेषकर बंगाल के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर इसका काफ़ी प्रभाव पड़ा। अपने संबोधन में टैगोर ने राम मोहन राय को’ भारत में आधुनिक युग के उद्घाटनकर्त्ता के रूप में भारतीय इतिहास का एक चमकदार सितारा कहा।