शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था :
मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक कुशल प्रशासक के रुप में शेरशाह का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। शेरशाह ने स्वयं कहा है कि -“अगर भाग्य ने मेरा साथ दिया और सौभाग्य मेरा मित्र रहा तो मैं मुगलों को सरलता से हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दूंगा।“ शेरशाह ने अपने कहे गये शब्दों को अक्षरतः सत्य सिद्ध किया और उसने उत्तर भारत में सूरवंश नामक द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। सूर राजवंश ने देश के प्राचीन शासन व्यवस्था को पुनर्जिवित किया है और साथ ही साथ उसने उपयोगी तथा आवश्यक सुधार भी किये जिनसे जनता को शान्ति, सुव्यवस्था और समृद्धि प्राप्त हुई। इस राजवंश के काल में अन्तिम बार एक अफगानी राजवंश दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान हुआ और इसी केन्द्र स्थान से उसने उत्तर भारत पर शासन संचालन किया। शेरशाह भारतीय इतिहास के उन महान व्यक्तियों में से था जो केवल अपने परिश्रम, योग्यता और अपनी तलवार की शक्ति के आधार पर साधारण व्यक्ति के स्तर से उठकर राज्य के शीर्षपद तक पहुंचने में सफलता अर्जित की। शेरशाह न तो किसी राजवंश से, न किसी धनाढ्य परिवार से और न ही किसी ख्यातिप्राप्त धार्मिक अथवा सैनिक नेता से सम्बन्धित था। जो कुछ भी उसने प्राप्त किया वह केवल अपने स्वयं के पौरुष और पुरुषार्थ से प्राप्त किया। यही कारण है कि उसकी गणना महान व्यक्तियों में की जाती है।
शेरशाह के भू-राजस्व सम्बन्धी सिद्धान्त -
मध्ययुगीन भारत में भूमि कर, राज्य की आय का प्रमुख स्रोत हुआ करता था। इससे पहले कि शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाया जाय, यह आवश्यक होगा कि हम उसके कृषि सम्बन्धी सिद्धान्तों और आदर्शों का उल्लेख करें, जो उसके समकालीन इतिहासकार अब्बास शेरवानी की पुस्तक ‘तवारीख-ए-शेरशाही‘ में परिलक्षित होता है।
अब्बास शरवानी के अनुसार शेरशाह यह अनुभव करता था कि ’राज्य की उन्नति का आधार कृषकों के परिश्रम पर ही निर्भर होता है।’ उसके अनुसार शेरशाह प्रायः यह कहा करता था कि ’कृषि तथा निर्माण की प्रगति में मैं यथाशक्ति प्रयास करूंगा।’ वह इस तथ्य से भलीभांति अवगत था कि कृषि तथा रचनात्मक कार्यों में कृषकों तथा जनता को सुविधा देना अनिवार्य है। उपज के समय कृषकों पर जो भूमि कर निर्धारित किया जाय, उसे प्राप्त करना उचित होगा। जो वचन कृषकों को दिया जाय उसका निर्वाह होना चाहिए। वह स्पष्ट रूप से कहा करता था कि ’कृपकों पर अत्याचार करना उचित नहीं, क्योंकि यही राज्य के मूल स्तम्भ होते हैं। उसका मानना था कि जब कोई राजस्थ अधिकारी भूमि कर वसूल करने में लाभ लेने का प्रयास करता है और कृषकों का उत्पीड़न करता है, उनसे कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसलिए शेरशाह ने इस बात को स्पष्ट घोषणा की कि सैनिक एवं राज्य कर्मचारियों को मेरी बेतावनी है कि वे अत्याचार तथा उत्पीड़न से बाज आयें? मैं आज से पहले किये गये कुकर्मों पर आँख मूंद सकता हूँ, परन्तु भविष्य में यदि मुझे पता चला कि मेरे किसी कर्मचारी ने किसी किसान के खेत से बलपूर्वक घास की एक पत्ती भी ली हो तो उसे उसे कठोर दण्ड भुगतना पड़ेगा, जो सबके लिए शिक्षाप्रद होगा ? उसने आगे कहा कि जो व्यक्ति मित्रता की आड़ में लोगों का उत्पीड़न करें, ऐसे दुर्जन के कुकर्मों को सहन करना भूल है। उसके शरीर से उसकी मोटी खाल खींचना ही समुचित दण्ड है। उसने कठोर शब्दों में इस बात की घोषणा की कि- मैं इस विषय में किसी तरह का पक्षपात नहीं करूॅंगा चाहे वह मेरा भाई, मेरा निकट सम्बन्धी या मेरी ही मातृभूमि का सैनिक ही क्यूॅं न हो, मैं उसे कड़ी सजा दूॅंगा जो देखने वालों के लिए एक उदाहरण बन जाय।
आय का प्रमुख स्रोत होने के साथ ही साथ भू-राजस्व की एक और विशेषता यह थी कि वह अधिकांशतः ग्रामों से ही प्राप्त किया जाता था। अतः शेरशाह ने भू-राजस्व व्यवस्था के साथ ग्रामीण व्यवस्था पर भी विशेष ध्यान दिया। ग्रामीण शासन में गांव का मुखिया सरकार की मदद करता था। शेरशाह ने मुखिया पद को वैधानिक मान्यता देकर उसके अधिकारों की रक्षा की। इसके साथ-साथ मुखिया के कर्तव्य भी शेरशाह ने निश्चित कर दिये, जैसे -- गांव में शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना, अपने गांव में पहरा देना, चोरी- डकैतो एव हत्या रोकने की व्यवस्था करना। परिणामस्वरूप शेरशाह की इस व्यवस्था के कारण असामाजिक तत्वों का अन्न हो गया। रक्षा का प्रबन्ध पहले से अधिक संतोषप्रद हो गया।
ग्रामीण प्रशासन को ठीक करने के बाद शेरशाह ने कृषकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने और राज्य की आय सुनिश्चित करने के ध्येय से तत्कालीन भूमि व्यवस्था में भी अनेक सुधार किये। मुख्यतः उत्पादन में वृद्धि, रैयतों की सुरक्षा और राजकीय आय में वृद्धि शेरशाह की भूमि कर सम्बन्धी सुधार के प्रमुख उद्देश्य थे। उनकी भूमि व्यवस्था के मुख्य आधार थे-
1. कृषकों की सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाय।
2. कर निर्धारण में नम्रता और वसूली में कठोरता।
3. कर एवं उत्पादन में उचित अनुपात।
4. कृषक अपनी भूमि के स्वयं स्वामी बनें।
शेरशाह ने अहमद खान नामक अधिकारी को राजस्व प्रशासन के लिए अधिकृत किया। अहमद खान ने हिन्दू ब्राह्मणों की सहायता से भूमि की माप करायी और कृषि योग्य भूमि का एक दस्तावेज तैयार किया। शेरशाह की भूमि मापन की पद्धति जब्ती पद्धति कहलाती है। जब्ती पद्धति को टोडरमल पद्धति भी कहते है क्योंकि टोडरमल को ही इस प्रणाली का जनक माना जाता है।
शेरशाह ने कृषकों की सुविधा एवं उन्हें उनकी भूमि का स्वामी बनाने के लिए पट्टा और कबूलियत को लागू किया। पट्टा द्वारा किसान को उसकी भूमि का स्वामी बनाया जाता था। इस कार्य में भूमि का क्षेत्रफल, भूमि की किस्म, भूमि कर निर्धारण की शर्तें, तथा किसान का नाम व पता इत्यादि दर्ज होता था और इसके बदले किसान से कबूलियत (शर्तनामा) पत्र पर हस्ताक्षर करवाकर राजस्व कार्यालय में भेज दिया जाता था। कबूलियतनामा के माध्यम से सीधे कृषकों से जुडने के कारण ही शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था को रैयतवाडी व्यवस्था कहा जाता है। शेरशाह ने भूमि पैमाइश की प्रथा पुनः शुरू की। समान विधि से भूमि की पैमाइश की जाती थी और प्रत्येक ग्राम की कृषि योग्य भूमि का लेखा-जोखा रखा जाता था। सासाराम में शेरशाह ने जिस व्यवस्था को लागू किया था उसी आधार पर शासक बनने के बाद उसने भू-राजस्व व्यवस्था को नये ढंग से व्यवस्थित किया। उसने भूमि की पैमाइश सिकन्दरी गज के आधार पर की जिसमें 39 खाने होते थे जो 32 अंगुल या 3/4 मीटर होता था। लेकिन उसने भूमि की इस नाप के लिए सन के डण्डे या रस्सी का प्रयोग किया। भूमि को उसने जरीब में विभाजित किया जिसे आगे चलकर अकबर ने बीघा में परिवर्तित कर दिया। प्रत्येक जरीब अथवा बीघा में 36 सौ वर्ग गज होता था। भूमि माप के बाद कृषि की अनुमानित उपज पर कर निर्धारित होता था।
भूमि का विभाजन -
शेरशाह ने भूमि को तीन श्रेणियों में विभाजित कर भू-राजस्व का निर्धारण किया। उसने भूमि को उत्तम, मध्यम एवं निम्न कोटि की श्रेणियों में बॉंटकर, कुल अनुमानित उपज का 1/3 भाग भूमिकर निश्चित कर दिया था। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि प्रो० के० आर० कानूनगो और कुरैशी ने भूमिकर की मात्रा उपज का 1/4 भाग होने का उल्लेख किया है। संभवतः इन इतिहासकारों ने शेरशाह के उस फरमान को आधार बनाया है जो उसने मुल्तान के गवर्नर हैवत खॉं को दिया था। परन्तु कानूनगो और कुरैशी का यह विवरण सत्य प्रतीत नहीं होता है क्योंकि अबुल फजल ने अपनी पुस्तक आइन-ए-अकबरी में स्पष्ट रूप से शेरगाह द्वारा उपज का 1/3 भाग कर के रूप में वसूल किये जाने का उल्लेख किया है। परमात्मा शरण और मोरलैण्ड जैसे इतिहासकार ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। मुल्तान में इसकी मात्रा 1/4 निर्धारित की गई थी। इसके अलावा शेरशाह के शासनकाल में कृषकों से जरीवाना तथा मुहासिलाना नामक दो कर भी वसूल किये जाते थे। भू-सर्वेक्षण के लिए कुल भूमिकर का ढाई प्रतिशत लगाया गया कर जरीवाना तथा कर संग्रहित करने के लिए कुल भूमिकर का पॉंच प्रतिशत लगाया गया कर मुहासिलाना कहलाता था।
राजस्व एकत्रित करने के लिए शेरशाह ने पॉंच प्रकार के अधिकारियों की सेवाओं का उपयोग किया - अमीन, मुकद्दम, शिकदार, कानूनगो और पटवारी। अमीन का काम भूमि की पैमाइश करवाना और लगान बन्दोबस्त का प्रबन्ध करना होता था। कानूनगो परगनों के लगान सम्बन्धी मामलों की पूरी-पूरी जानकारी रखता था। निश्चित कर को निश्चित समय पर एवं पूर्ण रूप में देने पर जोर दिया जाता था। अब्बास शरवानी ने लिखा है कि कर निर्धारण के समय अधिकारियों को यह स्पष्ट आदेश था कि वे किसानों के साथ उदारता का व्यवहार रखें और उन्हें चाहे जितनी भी छूट दे सकते हैं, किन्तु भूमिकर की वसूली के समय किसी प्रकार की रियायत या पक्षपात नहीं होना चाहिए। शेरशाह का यह स्पष्ट आदेश था कि कर की राशि को दृढ़तापूर्वक वसूल किया जाय और यदि कोई कृषक भूमि कर अदा करने में आना-कानी करे तो उसे ऐसा कठोर दण्ड दिया जाय जो अन्य व्यक्तियों के लिए शिक्षाप्रद हो सके। इसीलिए शेरशाह ने भूमि पैमाइश करने वाले कृषकों के वेतन निश्चित कर दिये ताकि वे मनमाने ढंग से कृषकों से धन की वसूली न कर सकें। शेरशाह ने अपने सैनिकों को भी ये आदेश दिये कि वे अभियान के समय फसलों को नुकसान न पहुंचायें। यदि किसी अपरिहार्यं कारणों से फलों को क्षति पहुंचायी जाती थी तो राजकोष से उस क्षति की पूर्ति की जाती थी। आदेशों का उल्लंघन करने वालों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई थी।
शेरशाह ने कृषकों को भू-राजस्व नकद और बाजार भाव पर अनाज के रूप में जमा करने की छूट दी। उसने किसानों को इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया कि वे राजकोष में जाकर स्वयं कर का भुगतान किया करें। इससे गांव के मुखिया एवं कर वसूलने वाले अधिकारियों का महत्व कम हो गया।
अब्बास शरवानी ने लिखा है कि शेरशाह ने न केवल भूमिकर की वसूली में सख्ती दिखलाई वरन् उसने कृषकों के हित में उनकी सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध किया। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है कि कर के निर्धारण में किसानों के साथ उदारता का व्यवहार रखने के लिए सम्राट का स्पष्ट आदेश था, परन्तु शेरशाह इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ, बल्कि उसने कृषकों से कहा कि यदि उन्हें कभी कोई शिकायत हो तो वे मेरे पास आकर अपनी शिकायतें सीधे पेश कर सकते हैं। मैं किसी पर अत्याचार होते नहीं देख सकता। इसका परिणाम यह हुआ कि कृषकों में विश्वास और आत्मबल की भावना बढ़ने लगी और वे तन-मन और ईमानदारी के साथ अपना कृषि कार्य करने लगे और राजकीय भूमि कर नियम-पूर्वक अदा करने लगे। इसके अतिरिक्त शेरशाह ने विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक विपदाओं जैसे - सूखा, बाढ़ या अकाल पड़ने पर कृषकों को केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारों द्वारा आर्थिक सहायता भी देने की व्यवस्था भी की। अकाल से निपटने के लिए कुल उत्पादन का ढाई सेर प्रति मन अनाज राजकीय गोदाम में रखा जाता था ताकि जरूरत पडने पर इससे काश्तकारों या जनता की मदद की जा सके।
तत्कालीन राजकीय स्रोतों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि शेरशाह ने मुल्तान में पैमाइश न करने का आदेश दिया था और मालवा तथा राजपूताना में भी देर से आधिपत्य के कारण शेरशाह भूमि व्यवस्था सम्बन्धी नियम लागू न कर सका। अतः इन स्थानों पर बंटाई प्रथा पूर्ववत लागू रही।
आलोचनात्मक मूल्यांकन -
शेरशाह की इस भू-राजस्व व्यवस्था के परिणामस्वरूप राज्य की आय के साधन बढ़ गये तथा साथ ही साथ कृषक वर्ग अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्त हो गया। यद्यपि कुछ इतिहासकारों ने शेरशाह की भूमि व्यवस्था की आलोचना करते हुये कहा है कि इससे कृषक वर्ग तो अनेक प्रकार के शोषण से मुक्त हो गया किन्तु जमीदारों के अधिकारों में विशेष कमी नहीं आई। शेरशाह ने अफगानों को संतुष्ट रखने के लिए जागीरदारी प्रथा को भी जारी रखा। सिचाई का समुचित प्रबंध भी सरकार की तरफ से नहीं किया गया और न ही घूसखोरी को समाप्त किया जा सका। शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था में तीन प्रमुख दोष थे। मध्यम अथवा औसत भूमि एवं खराब भूमि के कृषकों को, अच्छी भूमि के कृषकों की अपेक्षा अपने वास्तविक उत्पादन का बहुत बड़ा भाग भू-राजस्व के रुप में देना पड़ता था। पहले दो प्रकार की भूमि के कृषक अपनी भूमि की उत्पादकता में सुधार करके अपने स्तर में सुधार कर सकते थे लेकिन जबतक भूमि की उत्पादकता में सुधार नही होता उनको इस असमानता को सहन करना पडता था। मोरलैण्ड का मत है कि- ‘‘उत्पादित फसलों की मित्रता से असमानता का सामंजस्य हो जाता होगा।“
दूसरे, नकद भुगतान के लिए निश्चित सूचना, द्रुत गति से आकलन पद्धति एवं आनुपातिक निर्धारण की आवश्यकता होती है, जो लालफीताशाही सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था में संभव नही थी। भू-राजस्व की गणना में विलम्ब से स्थानीय समाहर्ताओं की कार्यकुशलता पर प्रभाव पडता था और रैयतों को भी कष्ट होता था।
तीसरे, अपने पदों का दुरुपयोग करने के लिए राजस्व अधिकारियों के एक अथवा दो वर्ष बाद स्थानान्तरण की प्रथा का श्रीगणेश किया गया था। लेकिन भ्रष्टाचारी अधिकारी अपनी अल्पावधि में भी भ्रष्ट तरीको से पर्याप्त धन एकत्र कर लेते थे।
लेकिन इन आलोचनाओं के वावजूद कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उस समय काश्तकारों को अधिक कष्ट नही था क्योंकि शेरशाह स्वयं उनकी भलाई और उन्नति का ध्यान रखता था। शेरशाह की नवीन ग्रामीण व्यवस्था एवं भूमि व्यवस्था के परिणामस्वरूप कृषक वर्ग अनेक प्रकार के कर भार से मुक्त हो गया। वह अब अपनी खेती से ही आसानी से अपने परिवार का जीवन यापन करने लगा। राज्य को भी इससे यह लाभ हुआ कि स्थानीय प्रशासन चुस्त होने से चोरी, डकैती एवं अन्य प्रकार के सामाजिक आर्थिक शोषण कम हो गये, जनता सुखी हुई, भूमि एवं भूमिकर का प्रत्येक गाँव का अभिलेख तैयार हो गया, भू-राजस्व से होने वाली आय लगभग सुनिश्चित हो गयी। शेरशाह की इस भूराजस्व व्यवस्था को आगे चलकर अकबर ने भी अपनाया इसलिए शेरशाह को अकबर का पूर्वगामी कहा जाता है। इसी व्यवस्था को आगे चलकर अंग्रेजों ने दक्षिण भारत के क्षेत्रों में रैयतवाडी व्यवस्था के रूप में अपनाया। इस नवीन भूमि व्यवस्था की नींव धीरे-धीरे भारत में मजबूत होती गयी और यही व्यवस्था वर्तमान परिवेश में संशोधित रूप में आज भी कायम है।
